प्रियंका सिंह, मुंबई। फिल्म ‘छावा’ में कवि कलश की प्रसिद्ध लाइनें – “हाथी घोड़े, तोप, तलवारें फौज तो तेरी सारी है, पर जंजीर में जकड़ा राजा मेरा अब भी सब पे भारी है…” – उस भयावह दृश्य को सामने लाती हैं, जब मुगल शासक औरंगजेब की सल्तनत में बंदी बने होते हुए भी छत्रपति संभाजी महाराज ने मुगलों की नींव हिला दी थी। निर्देशक लक्ष्मण उतेकर की यह फिल्म मराठा साम्राज्य के शूरवीर योद्धा संभाजी महाराज की जीवित प्रेरणाओं की कहानी है, जो लेखक शिवाजी सावंत के मराठी उपन्यास ‘छावा’ पर आधारित है।
फिल्म की शुरुआत होती है उस खबर के साथ, जिसमें औरंगजेब (अक्षय खन्ना) को पता चलता है कि मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन हो गया है। औरंगजेब को यह लगा कि अब दक्कन में उसका मुकाबला करने वाला कोई नहीं बचा है।
लेकिन इसी दौरान, मुगलों के किले बुरहानपुर में, छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज (विक्की कौशल) अपनी पूरी सेना के साथ हमला कर देते हैं। अपने पिता की तरह ही पराक्रमी योद्धा संभाजी राजे को लोग ‘छावा’ यानी शेर का बच्चा भी कहते हैं। औरंगजेब इस हमले से गुस्से में आ जाता है और नौ वर्षों तक छावा को घेरने के कई प्रयास करता है, लेकिन हर बार उसे मराठा योद्धाओं के हाथों पराजय का सामना करना पड़ता है।
लक्ष्मण उतेकर, जो मिमी, लुका छुपी, और जरा हटके जरा बचके जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, की छावा पहली ऐतिहासिक फिल्म है। अपने लेखकों के साथ मिलकर किताब को स्क्रीनप्ले में बदलने के अलावा, लक्ष्मण ने इस विषय पर गहरी रिसर्च भी की है। वह मराठा साम्राज्य के वीर योद्धाओं का हिंदू स्वराज्य के प्रति जुनून और समर्पण को प्रभावी रूप से दर्शाने में सफल रहे हैं। हालांकि, मध्यांतर से पहले कुछ पात्रों का सही से परिचय नहीं कराया गया है, और शिवाजी महाराज की दूसरी पत्नी सोयराबाई भोसले के प्रसंग को जल्दी निपटाया गया है।
फिल्म का क्लाइमेक्स बेहद दमदार है, जिसमें गहरी पीड़ा और गर्व का अहसास दोनों ही शामिल हैं, और दर्शकों को गर्व महसूस होता है कि भारत की धरती पर ऐसे वीर सपूत हुए हैं।
संगीत के लिहाज से एआर रहमान का संगीत और इरशाद कामिल के लिखे गीत कर्णप्रिय हैं, लेकिन अगर ढोल-ताशे की धुन भी होती, तो महाराष्ट्र की मिट्टी से जुड़ने का अहसास और भी गहरा हो जाता। संवादों में मराठी भाषा का उपयोग न होना थोड़ा अखरता है, क्योंकि वह फिल्म की भावना को और भी प्रामाणिक बना सकता था।
बाल संभाजी महाराज को शिवाजी महाराज की आवाज से मार्गदर्शन मिलने वाले दृश्य दिल को छू जाते हैं, और औरंगजेब की सल्तनत में बेड़ियों में जकड़े संभाजी महाराज और कवि कलश के बीच की कविताओं की प्रतियोगिता दर्शकों के दिलों में एक लंबा असर छोड़ जाती है।
एक सीन में, औरंगजेब छत्रपति संभाजी महाराज से कहता है कि “हमसे हाथ मिला लो, बस तुम्हें अपना धर्म बदलना होगा,” तो इस पर संभाजी महाराज का जवाब होता है, “हमसे हाथ मिला लो, मराठाओं की तरफ आ जाओ, जिंदगी बदल जाएगी और धर्म भी बदलना नहीं पड़ेगा।” छत्रपति शिवाजी महाराज को शेर कहा जाता है और उस शेर के बच्चे को छावा। ऋषि विरमानी के लिखे ये संवाद तालियां और सीटियां बटोरते हैं। औरंगजेब का यह कहना कि “काश हमारी एक औलाद भी संभाजी जैसी होती,” यह दिखाता है कि कैसे इस महान योद्धा ने मुगलों को नाकों चने चबवाए थे।
सिनेमैटोग्राफर सौरभ गोस्वामी की सराहना की जानी चाहिए, जिन्होंने गुरिल्ला युद्ध और मुगलों द्वारा संभाजी महाराज को धोखे से घेरने के दृश्यों को बड़ी ही बारीकी से फिल्माया है।
विक्की कौशल ने छत्रपति संभाजी महाराज के किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय किया है। विक्की ने बताया था कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि वह छत्रपति संभाजी महाराज को कैसे जीवित कर सकते हैं, और उन्होंने उस चुनौती को पूरी जिम्मेदारी के साथ पूरा किया। कुशल योद्धा की तरह दुश्मनों को खदेड़ने, मराठाओं में स्वराज्य का अभिमान बढ़ाने और क्लाइमेक्स में लहुलुहान, बेड़ियों में जकड़े, आंखें, जीभ और नाखून निकालने के बावजूद मुगलों के सामने सिर ऊंचा रखकर खड़े होने वाले वीर मराठा योद्धा संभाजी महाराज के हर एक पल को विक्की ने अपने अभिनय से पूरी तरह से जिया है।
जब छत्रपति संभाजी महाराज को बेड़ियों में जकड़कर खींचा जाता है, तो यह दृश्य सचमुच यह एहसास कराता है कि किसी शेर को पकड़ लिया है, जिसे काबू में लाना नामुमकिन है। रश्मिका मंदाना, जो येसूबाई की भूमिका में नजर आईं, इस किरदार में पूरी तरह से फिट बैठती हैं। इस बार उनके संवादों में दक्षिण भारतीय लहजे का असर कम दिखता है, और उनकी प्रस्तुति सहज और प्रभावशाली है।
अक्षय खन्ना ने औरंगजेब के रोल में शानदार अभिनय किया है, और वह साबित करते हैं कि वह हर तरह के किरदार को निभाने में माहिर हैं। कवि कलश का किरदार निभा रहे विनीत कुमार सिंह ने एक कवि से योद्धा बनने के सफर को गहरे प्रभाव के साथ जीवित किया है।
हालांकि, कलाकारों जैसे आशुतोष राणा, डायना पेंटी, और दिव्या दत्ता का सही उपयोग लक्ष्मण उतेकर नहीं कर पाए। उनके किरदार अधूरे से लगते हैं और उनकी भूमिकाओं में गहराई की कमी महसूस होती है।